आचार्य श्रीराम शर्मा >> आकृति देखकर मनुष्य की पहिचान आकृति देखकर मनुष्य की पहिचानश्रीराम शर्मा आचार्य
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लोगो की आकृति देखकर उनका स्वभाव पहचानना मनोरंजक तो होता ही है, परंतु इससे अधिक यह अनुभव आपको अन्य लोगों से सही व्यवहार करने में काम आता है।
आकृति विज्ञान का यही आधार है
कहानी तथा उपन्यासों का लेखक अपने पात्र का चरित्र चित्रण करते समय उनकी बोलचाल, रहन-सहन, मकान, कपड़े, शकल, सूरत का भी वर्णन करके अपनी रचना को हृदयग्राही बनाते हैं। सुयोग्य लेखक जानते हैं कि भीतरी चरित्र बाहरी रंगढ़ग में प्रकट होकर रहता है, इसलिए उसका वर्णन करने से यह सिद्ध होता है कि लेखक ने मानवीय आकृति विज्ञान से किस हद तक जानकारी प्राप्त की है।
काला, गोरा, सुन्दर, कुरूप कैसा ही व्यक्ति क्यों न हो उसकी बुरी आदतों के कारण सुन्दर अंगों में भी भौंडापन आ जायगा, जो सुसंस्कृत हैं वे अष्टावक्र या सुकरात की तरह कुरूप क्यों न हों उनके अंग अपनी बनावट में खड़े रहते हुए भी प्रामाणिकता को साक्षी देते रहेंगे। यह रचना आदतों के कारण बनती या बिगड़ती रहती है। एक सज्जन व्यक्ति जब कुमार्ग की ओर चलता है तो उसके सज्जनता के चिह्न घटते हैं और विभिन्न अंगों में से लक्षण उदय हो जाते हैं जिन्हें देखकर दुर्जनता को पहचाना जा सकत है। हाथों की रेखाएँ घटती बढ़ती हैं, उसमें से कुछ नई निकलती हैं लुप्त हो जाती हैं, यह परिवर्तन आचार और विचार में अन्तर आने के कारण होता है। इसी प्रकार स्वभाव और व्यवहार के कारण सूक्ष्म रूप से मन और शरीर पर जो प्रभाव पड़ता है उसके लिए कई प्रकार के विचित्र चिह्न उत्पन्न हो आते हैं तथा अंगों के ढाँचे में कुछ विचित्र तरीके से हेर-फेर हो जाता है।
आध्यात्मिक पुरुष इन्हीं लक्षणों को देखकर मनुष्य की भीतरी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। स्थिति का पता होने से परिणाम की कल्पना सहज ही की जा सकती है जैसे कोई व्यक्ति विद्वान वक्ता और सद्गुणी हो तो अनायास ही यह कह सकते हैं कि "इसे जनता में आदर मिलेगा।" इसी प्रकार शारीरिक चिहों से भीतरी योग्यताओं का पता लगने से उसके भविष्य फल की भी बहुत हद तक ऐसी कल्पना की जा सकती है जो अन्त में सच निकले। इस प्रकार आकृति देखकर किसी मनुष्य का चरित्र जानना तथा उसका भविष्य बताना दोनों ही सम्भव हैं।
एक बात स्मरण रखने की है कि आकृति विज्ञान भाग्यवाद का किसी भी प्रकार समर्थक नहीं है। गुण, कर्म और स्वभाव में जो अन्तर आते हैं
उनके अनुसार चेहरे का रंग ढंग भी बदल जाता है, आकृति विद्या का ज्ञाता एक समय में एक मनुष्य के जो लक्षण बताता है, यदि उस व्यक्ति का स्वभाव बदल जाय तो उसे उसके लक्षण भी बदले हुए मिलेंगे। यह ठीक है कि ढाँचा नहीं बदलता, ढाँचे का संबंध पूर्व जन्मों के संचित संस्कारों से होता है। सुन्दर सुडौल अंगों वाला व्यक्ति पूर्व जन्म का शुभ कर्मकर्त्ता तथा कुरूप और बेडौल अंगों वाला पूर्व जन्म में अशुभ कर्मकर्ता रहा होगा तदनुसार उन संस्कारों की प्रेरणा से इस जन्म में सुन्दरता या कुरूपता प्राप्त हुई है यह मान्यता ठीक है। यह जन्म जात ढाँचे और रंग रूप बदले नहीं जा सकते, उन्हें देखकर जन्म-जन्मान्तरों के कुछ स्वभाव और संस्कारों का परिचय प्राप्त होता है, पर ऐसी बात नहीं कि वर्तमान जन्म में उन संस्कारो में परिवर्तन करना सम्भव न हो, मनुष्य को ईश्वर ने पूर्ण स्वतंत्र बना कर भेजा है वह स्वेच्छानुसार पुराने सब स्वभावों को बदल कर नये ढाँचे में ढल सकता है।
आकृति परिज्ञान विद्या एक वैज्ञानिक क्रिया पद्धति है, ऐसा कदापि नहीं कहता कि-"मनुष्य भाग्य का पुतला है या विधाता ने उसे जैसा बना रक्खा है वैसा रहना पड़ेगा।" भाग्यवाद को इस विद्या के साथ जोड़ना एक बहुत बड़ी गलती करना है। मानसून हवाओं को देखकर यदि कोई वायु विद्या विशारद शीध्र वर्षा होने की घोषणा करता है या मच्छरों की वृद्धि को देखकर कोई डाक्टर मलेरिया की चेतावनी देता है या गवाहों के बयान सुनकर कोई कानूनवेत्ता मुकदमा हार जाने की बात कहता है तो यह न समझना चाहिए कि पू में भाग में लाई था जरें इनालोगेने की गुप्तज्ञान से जना लिया है।
वास्तव में वायु विद्या विशारद, डॉक्टर तथा कानूनवेत्ता महानुभावों ने जो भविष्यवाणियाँ की थीं वे सामयिक स्थिति को देखते हुए उनके परिणामों के ज्ञान के आधार पर की थीं। यदि उनमें कुछ परिवर्तन किया जा सके तो फल भी बदल सकता है, मच्छरों को यदि मार भगाया जाय तो डाक्टर की चेतावनी पत्थर की लकीर न रहेगी। यही बात आकृति विद्या के सम्बन्ध में है, किसी मनुष्य का भूत, भविष्य और वर्तमान इसके द्वारा कहा जा सकता है, भूगर्भ विद्या के ज्ञाता जमीन देख कर निकाले हुए एक पत्थर के टुकड़े के आधार पर अनेक एतिहासिक तथ्य खोज निकालते हैं फिर आकृति की बारीकियों
का निरीक्षण करके मनुष्य जीवन के आगे पीछे की बहुत-सी बातें भी कही जा सकती हैं, किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि यह कथन अन्वेषण और अनुभव की बुद्धि संगत वैज्ञानिक विधि से ही किया जा रहा है। इसमें ऐसी कोई बात नहीं है कि आदमी को ब्रह्माजी ने एक गोबर गणेश भाग्य का पुतला बना कर भेजा हो। मनुष्य अपने आप को चाहे जैसा बनाने में पूर्णतया स्त्रतत्र हैं।
कभी-कभी आकृति विद्या के आधार पर कही हुई कुछ बातें ठीक नहीं बैठतीं, इसके दो कारण हैं-एक तो यह कि उस व्यक्ति ने अपना स्वभाव बदल डाला है किन्तु शरीर पर प्रकटित चिन्हों केा बदलने में कुछ अड़चन हुई हो अथवा नये चिह्न अभी प्रकट न हुए हों। दूसरा कारण यह है कि फल कहने वाले से लक्षण पहचानने तथा फल कहने में कुछ गलती हुई हो, इन कठिनाइयों का ध्यान रखते हुए जब असफलता मिले तो हताश न होकर कारण को खोजना चाहिए और एक अन्वेषक की भाँति वास्तविकता का पता लगाते हुए इस विज्ञान को आगे बढ़ाने में सहायता करनी चाहिए।
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- चेहरा, आन्तरिक स्थिति का दर्पण है
- आकृति विज्ञान का यही आधार है
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